
अब ये सूरत बदलनी चाहिए
हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है. देश में 17 वीं लोकसभा के चुनाव के लिए शंखनाद हो चुका है. हर राजनैतिक दल ताल ठोककर चुनावी अखाड़े में उतर चुका है. चुनावी चाशनी में लिपटे वादों की झड़ी लग रही है. सत्ता के गलियारे में अपनी धमक के लिए राजनेता दिन रात पसीना बहा रहे है.
लोकतंत्र में सबसे ताकतवर होता है मतदाता, देश के लोकतंत्र के साथ अजब मजाक हुआ. हर चुनाव के बाद मतदाता को छला गया. यही कारण है कि आज भी देश का आम नागरिक रोटी, मकान, रोजगार, बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थय जैसी जीवन की मूलभूत जरुरतों के लिए जद्दोजहद कर रहा है. पुलिस का डंडा व कानून का फंदा आम नागरिक पर कहर ढाने को हर समय तैयार रहता है. गरीब आदमी की न तो कोई अपील है और न ही कोई सुनवाई. विरोधाभास ये है कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है.
मेरा ये मानना है कि मतदाताओं का जागरूक होना आवश्यक है. आज नागरिकों को जात पात, धर्म, समुदाय, दलगत राजनीति व भाषा, क्षेत्रतीयता के मकड़ जाल से निकल खुली आंखो से अपना व अपने आस पास के क्षेत्र का निरीक्षण करना चाहिए, यथार्थ का सच स्वतः ही उनके सामने आ जायेगा, जागरूक मतदाता ही अपने अधिकारों की आवाज उठा सकता है. वो ही ब्यूरो क्रेसी को लालफीता शाही से निपट सकता है. वो ही नेताओं से सवाल भी पूछ सकता है.
राजनीतिक दलों, नेताओं को भी अपने क्षेत्र और लोगों की सुध लेनी चाहिए, उन्हें हर हाल में जन समस्याओं को दूर करना चाहिए, यदि नजरिये में बदलाव आ जाये तो. कई समस्याएं तुरंत हल हो सकती है. आज की स्थिति में तो दुष्यंत कुमार को ये पंक्तियां ज्यादा सार्थक लगती है.
हो गई है पीर पर्वत-सी अब पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से अब कोई गंगा निकलनी चाहिए,
मेरे सीने में न सही तो तेरे सीने में सही,
हो कही भी आग, मगर आग लगनी चाहिए,
मनमोहन रामावत